Wednesday, October 5, 2011

एक कविता बन रही है....

एक कविता बन रही है

पुराने किले में एक कोने में रहेनेवाली बुढ़िया बना रही है एक कविता

टूटे -फूटे बरतन लेकर मिट्टी के ढेर पर बैठकर एक बुढ़िया

अपने बदन पे एकलौती शॅाल लेकर....वोही शॅाल जो तुमने दी थी उसे,

अपना फूटा नसीब लेकर हंसकर वो बुढ़िया बना रही है एक कविता ..............

एक कविता बन रही है

सड़क पर ट्राफिक में खड़े रहकर एक लड़की फूल बेचनेवाली

फूलसी नाजुक , कलीसी कच्ची बच्ची ... गजरे बनती हुई बच्ची ..

वोही बच्ची तुमने पूरी टोकरी फूल खरीद लिए थे जिससे,

फूल बेचते बेचते बच्ची अपने नसीब के कांटे सेहते बना रही है एक कविता ...........

एक कविता बन रही है

स्टेशन पर आधी रात को चाय बेचनेवाला ... बारिश में भीगता हुवा आदमी

आधी रात को जिसे तुमने बाल्कनी से देखकर अपना छाता दिया था वो चायवाला

चाय बनाते बनाते अपने नसीब के साथ बना रहा है एक कविता..............

एक कविता बन रही है

बिखरे हुए लम्हे लेकर ; बिछड़ी हुई यादें लेकर

टूटे फूटे नगमे खोजकर उन्हें फिरसे जुटाने की कोशिश में रहनेवाली मै... बना रही हूँ एक कविता ......

एक ऐसी कविता जिसमे ना परी हो .. ना चंदा हो ...

एक ऐसी कविता जिसमे ना प्यार हो .. ना गीत हो ...

एक ऐसी कविता जो कभी ना ख़तम हो ..

एक ऐसी कविता जिसका कोई आकार ना हो ....

एक ऐसी कविता जो बेहेती जाए बेहेती ही जाए नदी की तरह...

और आकर मिल जाए तुम्हारी नज्मोसे

एक ऐसी कविता बन रही है..............

-------------------------------------------------------------------------------------------------------- अवंती

No comments: