Monday, October 17, 2011

FLASHBACK

सुबह का अलार्म ..

माँ की आवाज ..

किनकिनाती चूड़ियां

कुकर की सिट्टीयां

मंदिर की सीढियां

रिक्शा के भोपू

स्कूल की घंटिया

पक्किवाली सहेलिया

होर्न वाली गाड़ियां

झगडालू बनिया

खांसती बुढिया

पीपल पे चिड़िया

रेल की पटरीया

पेडपर से अम्बिया

झूलेवाली मुनिया

बगीचे की भीड़ में खोयी हुई बच्चिया...

आँगन में बेहेन चुनती हवी चमेलिया

नानी की कहानी में परियों की बतिया

माँ की लोरिया....

वा! ज़िन्दगी वाह! ..क्या संगीत था तुझमें उन दिनों .....!!!

Friday, October 14, 2011

डायरी

जमा कर रही हूँ उन पत्तों को जो पतझड़ के बाद बिखर गए थे ...
वोह एक टेहनी जो मेरी खिड़की से झांककर हमेशा देखती थी हमें ..
वोह आज भी आस लिए खड़ी है वहीपर एक पत्ते की ...
जमा कर रही हूँ उन लम्हो को जो गुजरने के बाद छोड़े थे तुमने ....
वोह एक डायरी जो मेरी मेज पर थी तुम्हारी ...
वोह आज भी आस लिए वही पर है एक कविता की .....

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- अवंती

Wednesday, October 5, 2011

एक कविता बन रही है....

एक कविता बन रही है

पुराने किले में एक कोने में रहेनेवाली बुढ़िया बना रही है एक कविता

टूटे -फूटे बरतन लेकर मिट्टी के ढेर पर बैठकर एक बुढ़िया

अपने बदन पे एकलौती शॅाल लेकर....वोही शॅाल जो तुमने दी थी उसे,

अपना फूटा नसीब लेकर हंसकर वो बुढ़िया बना रही है एक कविता ..............

एक कविता बन रही है

सड़क पर ट्राफिक में खड़े रहकर एक लड़की फूल बेचनेवाली

फूलसी नाजुक , कलीसी कच्ची बच्ची ... गजरे बनती हुई बच्ची ..

वोही बच्ची तुमने पूरी टोकरी फूल खरीद लिए थे जिससे,

फूल बेचते बेचते बच्ची अपने नसीब के कांटे सेहते बना रही है एक कविता ...........

एक कविता बन रही है

स्टेशन पर आधी रात को चाय बेचनेवाला ... बारिश में भीगता हुवा आदमी

आधी रात को जिसे तुमने बाल्कनी से देखकर अपना छाता दिया था वो चायवाला

चाय बनाते बनाते अपने नसीब के साथ बना रहा है एक कविता..............

एक कविता बन रही है

बिखरे हुए लम्हे लेकर ; बिछड़ी हुई यादें लेकर

टूटे फूटे नगमे खोजकर उन्हें फिरसे जुटाने की कोशिश में रहनेवाली मै... बना रही हूँ एक कविता ......

एक ऐसी कविता जिसमे ना परी हो .. ना चंदा हो ...

एक ऐसी कविता जिसमे ना प्यार हो .. ना गीत हो ...

एक ऐसी कविता जो कभी ना ख़तम हो ..

एक ऐसी कविता जिसका कोई आकार ना हो ....

एक ऐसी कविता जो बेहेती जाए बेहेती ही जाए नदी की तरह...

और आकर मिल जाए तुम्हारी नज्मोसे

एक ऐसी कविता बन रही है..............

-------------------------------------------------------------------------------------------------------- अवंती

Sunday, September 4, 2011

बाँसी ज़िंदगी

ज़िंदगी__________

क्या है मेरी ज़िंदगी ?

शुरुवात में लगा था

होगी कुछ खट्टी कुछ मिठी..

थोडीसी नमकीन और हाँ ..

तुम्हारी तरह कुछ तिखी भी!

खैर ____________

अब ये है तो नहीं ...

बाँसी है मेरी ज़िंदगी ...

लगा था कभी जिनके सहारे जी पाऊँगी

वो लमहे जो तुमने और तुम्हारी याद ने पिरोये है

मेरी जेहन में ...वो सब अब बाँसे हो चुके है ....!

सर्दियोंमें __________

तुम्हारे संग बीते पल

एकसाथ जो फूँके मारी थी हवामें

और खिड़कियों पे उंगली से कुछ लिखना

वो सब सर्द हवा और फूँके अब बाँसे हो गये है ..!

बारिशमें ___________

भिगे हम और भिगे पल ........

वो बारिश जो भिगोती थी हमें

कभी तुम्हारे छत पर , कभी मेरे आँगन में

कभी स्टेशन पे और कभी कभी बस तुम्हारी बातोमें

वो बारिश ..वो बातें भी अब बाँसे हो गये है ....!

समंदरपे ___________

किनारे पे आपने पैरो के निशाँ छोड़कर ,

हाथ में हाथ लिए फिरते हम ...

रेत पर तिनके से हमारे नाम लिखना

और रेत का टीला बनाते समय

उसपर से तुम्हारी फिरती उंगलिया...

मानो कोई माँ अपने बच्चे के बालो में से

घुमा रही है आपनी उंगलिया......

वो किनारा ... वे अक्षर जो रेत पे लिखे थे ..

और वो घर जो तुमने बनाया था अब सब बाँसा हो गया है .....!

पल _____________

लगा था कभी जिनके सहारे जी पाऊँगी उम्रभर

वो पल .... वो सारे पल ;

जो मेरी जेहन में है वो सब अब बाँसे हो गये है ....!

सच _____________

लेकिन ज़िंदगी का आखरी सच तो यही है .....

भूखे को ... बाँसी रोटी भी ज़िंदगी से प्यारी होती है .....!

----------अवंती.

Friday, September 2, 2011

गली

कितने सालों बाद आज इस गली से गुज़र रही हूँ ...

छोटे थे हम ..याद है तुम्हे ?....स्कूल के दिनों...छुट्टियोंमे बाहर वो अमरूद वाला ठेला लगाये बैठता था ..

कितना मन करता था मेरा ..वह पच्चीस पैसे का एक अमरूद लेने का ...

लेकिन माँ के डांट से डरकर कभी लिया नहीं ...

तुम चुपके से लेकर आते थे घर में और झूटमूट से ही कहते थे "बूढी अम्मा के पेड़ के है ताईजी"

दिन गुज़रे साल बीते...

में एक शहर चली गयी और तुम दुसरे शहर ;

लेकिन जब भी आते तो वह बगीचे वाले अमरूद के पेड़ के पास ही मिलते थे ..

याद है तुम्हे ?....हमारे घर के आँगन में तुमने कुछ बीज बोये थे...

सिर्फ तुम ही थे जो उसे हर रोज पानी डाला करते थे...तुम्हारे जाने के बाद .. पेड़ प्यासा ही रहा ...

पेड़ पर हर साल ढेरो अमरूद आते है कुछ खट्टे कुछ मीठे बिलकुल तुम्हारी यादों की तरह ....

लेकिन अब डांटने वाला कोई नहीं न कोई चुपकेसे खिलानेवाला ....

कितने सालो बाद आज इस गली से गुज़र रही हूँ ....

यहाँ हम कभी लुकाछुपी खेला करते थे ...स्कूल की छुट्टियों में तुम लेकर आते थे तुम्हारे सारे चचेरे मौसेरे भाई बहनों को ..

और बूढी अम्मा के घर में छुपाना कितना अच्छा लगता था तुम्हे....

तुम्हारा मनपसंद खेल ..'लुकाछुपी '...

ज़िन्दगी भर यही तो खेलते आये हो मेरे साथ.. अपने आपके साथ ..

और अब तुम्हारे बाद तुम्हारी यादें भी यही खेल खेलती है ....

इसीलिए तो आयी हूँ इस गली में उस अमरूद वाले से ... उस अमरूद के पेड़ से... बूढी अम्मा के घर से

तुम्हारी यादों का पता पूछने ..उन्हें सिमटने.....

--------------अवंती

Thursday, September 1, 2011

बारिश..तुम..यादें

बारिश तो आ गयी ..वोही वो पहले वाली बारिश ....

लेकिन कागज की कश्तियाँ आज मिली नहीं ....

माँ से डांट खा कर भी उस वक़्त भीगा करते थे...

आज भी में भीगी लेकिन माँ ने डांटा नहीं ...तुम जो रहे नहीं .......

बारिश में भीगते हुए मुझपे छींटे उड़ना अच्छा लगता था तुम्हे ..

आज बारिश भी है छींटे भी है लेकिन तुम रहे नहीं ....

आज तो भीगने का मन नहीं था, सोचा था सुखालू सब कुछ

लेकिन भिगो दिया तुम्हारी यादों ने ..यादें तो है लेकिन उनमे भी तुम रहे नहीं

तुम्हारी यादेंभी अजीब है बिलकुल बारिश की तरह या फिर तुम्हारी तरह आती तो है बेवक्त बेहिसाब लेकिन रुकने का नाम नहीं... .

_अवंती